राजा जानुश्रुति अपने समय के महान दानी थे। एक शाम वह महल की छत पर विश्राम कर रहे थे, तभी सफेद हंसों का जोड़ा आपस में बात करता आकाश-मार्ग से गुजरा।
हंस अपनी पत्नी से कह रहा था। क्या तुझे राजा जानुश्रुति के शरीर से निकल रहा यश प्रकाश नहीं दिखाई देता। बचकर चल, नहीं तो इसमें झुलस जाएगी।
हंसिनी मुस्कराई, प्रिय मुझे आतंकित क्यों करते हो? क्या राजा के समस्त दानों में यश निहित नहीं है, इस लिए मैं ठीक हूं। जबकि संत रैक्व एकांत साधना लीन हैं? उनका तेज देखते ही बनता है। व हीं सच्चे अर्थों में दानी हैं।
जानुश्रुति के ह्दय में हंसो की बातचीत कांटों की तरह चुभी। उन्होंने सैनिकों को संत रैक्व का पता लगाने का आदेश दिया। बहुत खोजने पर किसी एकांत स्थान में वह संत अपनी गाड़ी के नीचे बैठे मिले।
जानुश्रुति राजसी वैभव से अनेक रथ, घोड़े, गौ और सोने की मुद्राएं लेकर रैक्व के पास पहुंचे। रैक्व ने बहुमूल्य भेटों को अस्वीकार करते हुए कहा कि मित्र यह सब कुछ ज्ञान से तुच्छ है। ज्ञान का व्यापार नहीं होता।
राजा शर्मिंदा होकर लौट गए कुछ दिन बाद वह खाली हाथ, जिज्ञासु की तरह रैक्व के पास पहुंचे। रैक्व ने राजा की जिज्ञासा देखकर उपदेश दिया कि दान करो, किंतु अभिमान से नहीं उदारता की, अहं से नहीं, उन्मुक्त भाव से दान करो। राजा रैक्व की बात सुनकर प्रभावित हुए और लौट गए।
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