परीक्षा - मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी | Pariksha Story by Munshi Premchand


नादिरशाह की सेना
ने दिल्ली में कत्लेआम कर रखा है। दिल्ली के लोग घरों के द्वार बंद किये जान की ख़ैर मना रहे हैं। किसी की जान सलामत नहीं है।


दिल्ली उन दिनों भोग-विलास की केंद्र बनी हुई थी। सजावट और तकल्लुफ के सामानों से रईसों के भवन भरे रहते थे। स्त्रियों को बनाव-सिगांर के सिवा कोई काम न था। पुरूषों को सुख- भोग के सिवा और कोई चिन्ता न थी। राजीनति का स्थान शेर-ओ-शायरी ने ले लिया था। समस्त प्रांतों से धन खिंच-खिंच कर दिल्ली आता था। नादिरशाह शाही महल में पहुंचा तो वहाँ का सामान देखकर उसकी आँखें खुल गयीं। उसका जन्म दरिद्र-घर में हुआ था। संध्या हो गयी थी। नादिरशाह अपने सरदारों के साथ महल की सैर करता और अपनी पसंद की सब चीज़ों को बटोरता हुआ दीवाने-खास में आकर कारचोबी मसनद पर बैठ गया, सरदारों को वहाँ से चले जाने का हुक्म दिया — मैं शाही बेगमों का नाच देखना चाहता हूँ। तुम इसी वक्त उनको सुंदर वस्त्राभूषणों से सजाकर मेरे सामने लाओ।
दरोगा ने यह नादिरशाही हुक्म सुना तो होश उड़ गये। वे महिलाएँ जिन पर सूर्य की द्रष्टि भी नहीं पड़ी कैसे इस मजलिस में आयेंगीं! नाचने का तो कहना ही क्या! शाही बेगमों का इतना अपमान कभी न हुआ था। हाँ नरपिशाच! दिल्ली को खून से रंग कर भी तेरा चित शांत नहीं हुआ। मगर नादिरशाह के सम्मुख एक शब्द भी जबान से निकालना अग्नि के मुख में कूदना था! सिर झुकाकर आदाब लगाया और आकर रानीवास में सब बेगमों को नादिरशाही हुक्म सुना दिया; उसके साथ ही यह इत्त्लाह भी दे दी कि ज़रा भी ताम्मुल न हो, नादिरशाह कोई उज़्र या हिल्ला न सुनेगा! शाही खानदान पर इतनी बड़ी विपत्ति कभी नहीं पड़ी; पर उस समय विजयी बादशाह की आज्ञा को शिरोधार्य करने के सिवा प्राण-रक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं था।

बेगमों ने यह आज्ञा सुनी तो हतबुद्धि-सी हो गयीं। सारे रानीवास में मातम-सा छा गया। वह चहल-पहल गायब हो गयी। सैकड़ों हृदयों से इन सहायता-याचक लोचनों को देखा, किसी ने खुदा और रसूल का सुमिरन किया; पर ऐसी एक महिला भी न थी जिसकी निगाह कटार या तलवार की तरफ गयी हो। यद्यपि इन में कितनी ही बेगमों की नसों में राजपूतानियों का रक्त प्रवाहित हो रहा था; पर इंद्रियलिप्सा ने जौहर की पुरानी आग ठंडी कर दी थी। सुख-भोग की लालसा आत्मसम्मान का सर्वनाश कर देती है। आपस में सलाह करके मर्यादा की रक्षा का कोई उपाय सोचने की मोहलत न थी। एक-एक पल भाग्य का निर्णय कर रहा था। हताशा का निर्णय कर रहा था। हताश होकर सभी ललपाओं ने पापी के सम्मुख जाने का निश्चय किया। आंखों से आँसू जारी थे, अश्रु-सिंचित नेत्रों में सुरमा लगाया जा रहा था और शोक-व्यथित हृदयों पर सुगंध का लेप किया जा रहा था। कोई केश गुंथती थी, कोई मांगों में मोतियाँ पिरोती थी। एक भी ऐसे पक्के इरादे की स्त्री न थी, जो ईश्वर पर अथवा अपनी टेक पर, इस आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस कर सके।

एक घंटा भी न गुजरने पाया था कि बेग़मात पूरे-के-पूरे, आभूषणों से जगमगातीं, अपने मुख की कांति से बेलें और गुलाब की कलियों को लजातीं, सुगंध की लपटें उड़ाती, छमछम करती हुई दीवाने-ख़ास में आकर नादिरशाह के सामने खड़ी हो गयीं।
नादिर शाह ने एक बार कनखियों से परियों के इस दल को देखा और तब मसनद की टेक लगाकर लेट गया। अपनी तलवार और कटार सामने रख दी। एक क्षण में उसकी आँखें झपकने लगीं। उसने एक अगड़ाई ली और करवट बदल ली। ज़रा देर में उसके खर्राटों की आवाज़ें सुनायी देने लगीं। ऐसा जान पड़ा कि गहरी निद्रा में मग्न हो गया है। आधे घंटे तक वह सोता रहा और बेगमें ज्यों की त्यों सिर नीचा किए दीवार के चित्रों की भांति खड़ी रहीं। उनमें दो-एक महिलाएँ जो ढीठ थीं, घूघंट की ओट से नादिरशाह को देख भी रहीं थीं और आपस में दबी ज़बान में कानाफूसी कर रही थीं — कैसा भंयकर स्वरूप है! कितनी रणोन्मत आंखें हैं! कितना भारी शरीर है! आदमी काहे को है, देव है।

सहसा नादिरशाह की आँखें खुल गईं परियों का दल पूर्ववत् खड़ा था। उसे जागते देखकर बेगमों ने सिर नीचे कर लिए और अंग समेट कर भेड़ों की भाँति एक दूसरे से मिल गयीं। सबके दिल धड़क रहे थे कि अब यह ज़ालिम नाचने-गाने को कहेगा, तब कैसे होगा! ख़ुदा इस ज़ालिम से समझे! मगर नाचा तो न जायेगा। चाहे जान ही क्यों न जाए। इससे ज़्यादा ज़िल्लत अब न सही जाएगी।

सहसा नादिरशाह कठोर शब्दों में बोला — ऐ ख़ुदा की बंदियों, मैंने तुम्हारा इम्तहान लेने के लिए बुलाया था और अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारी निसबत मेरा जो ग़ुमान था, वह हर्फ़-ब-हर्फ़ सच निकला। जब किसी क़ौम की औरतों में ग़ैरत नहीं रहती तो वह क़ौम मुर्दा हो जाती है।

देखना चाहता था कि तुम लोगों में अभी कुछ ग़ैरत बाक़ी है या नहीं। इसलिए मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया था। मैं तुम्हारी बेहुरमली नहीं करना चाहता था। मैं इतना ऐश का बंदा नहीं हूँ, वरना आज भेड़ों के गल्ले चाहता होता। न इतना हवसपरस्त हूँ, वरना आज फ़ारस में सरोद और सितार की तानें सुनाता होता, जिसका मज़ा मैं हिंदुस्तानी गाने से कहीं ज़्यादा उठा सकता हूँ। मुझे सिर्फ तुम्हारा इम्तहान लेना था। मुझे यह देखकर सच्चा मलाल हो रहा है कि तुम में ग़ैरत का जौहर बाकी न रहा। क्या यह मुमकिन न था कि तुम मेरे हुक्म को पैरों तले कुचल देतीं? जब तुम यहाँ आ गयीं तो मैंने तुम्हें एक और मौका दिया। मैने नींद का बहाना किया। क्या यह मुमकिन न था कि तुम में से कोई खुदा की बंदी इस कटार को उठाकर मेरे जिगर में चुभा देती। मैं कलाम-ए-पाक की क़सम खाकर कहता हूँ कि तुम में से किसी को कटार पर हाथ रखते देखकर मुझे बेहद खुशी होती, मैं उन नाज़ुक हाथों के सामने गरदन झुका देता! पर अफ़सोस है कि आज तैमूरी ख़ानदान की एक बेटी भी यहाँ ऐसी नहीं निकली जो अपनी हुरमत बिगड़ने पर हाथ उठाती! अब यह सल्तनत ज़िन्दा नहीं रह सकती। इसकी हस्ती के दिन गिने हुए हैं। इसका निशान बहुत जल्द दुनिया से मिट जाएगा। तुम लोग जाओ और हो सके तो अब भी सल्तनत को बचाओ वरना इसी तरह हवस की गुलामी करते हुए दुनिया से रुख़सत हो जाओगी!

अगर आपको यह पसंद आया हो तो इसे अपने दोस्तों के साथ Share जरुर करे।

Tag: hindi kahani, hindi me kahani, Hindi Sahitya, Hindi stories, Hindi story kahani hindi, kahani in hindi, kahaniya, kahaniyan Munshi premchand ki ,kahani Pariksha, stories in hindi, story hindi, परीक्षा, परीक्षा मुंशी प्रेमचंद, प्रेमचंद की कहानी परीक्षा, मुंशी प्रेमचंद हिंदी कहानी, हिन्दी साहित्य

Post a Comment

और नया पुराने