प्रेमचंद जी का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था इनकों नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी।
जीवन परिचय –
हिंदी के महान कहानीकार और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म काशी के समीप स्थित लमही नामक गाँव में 31 जुलाई 1880 ई. को हुआ था। इनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। आठ वर्ष की आयु पर इनकी माता और सोलह वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया। इनकी आर्थिक अवस्था भी अधिक अच्छी नही थी। और पिता की मृत्यु के बाद घर का सारा बोझ इन पर आ गया। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। 1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और 1919 में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। बाद में सरकारी नौकरी छोड़कर ये लेखन कार्य में जुट गए। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।रचनाएँ –
सन 1907 में उनकी पुस्तक सोजे वतन (राष्ट्र का विलाप) प्रकाशित हुई। इस रचना में राष्ट्र के ओत-प्रोत कहानियां संकलित थीं। जिसके बाद अंग्रेजी सरकार ने इस रचना पर प्रतिबन्ध लगा दिया इसके बाद प्रेमचंद ने हिंदी में लिखना आरम्भ कर दिया। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अजीज दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। उन्होंने आरंभिक लेखन ज़माना पत्रिका में ही किया।- उपन्यास : सेवासदन (1918), प्रेमाश्रम (1922), रंगभूमि (1925), निर्मला (1925), कायाकल्प (1927), गबन (1928), कर्मभूमि (1932), गोदान (1936), मंगलसूत्र (अपूर्ण)
- नाटक : संग्राम' (1923), कर्बला (1924), प्रेम की वेदी (1933)
- कहानी : कफ़न, नमक का दरोगा, माँ, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, पूस की रात, प्रेम-सूत्र, पंच परमेश्वर, ईदगाह, दो बैल की कथा, आख़िरी तोहफ़ा आदि लगभग 300 के आसपास इन्होंने कहानियाँ लिखी थीं, जो मानसरोवर के आठ भागों में प्रकाशित हो चुकी है।
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