जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की। जिन्होंने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। आधुनिक काल के कवियों में उनका स्थान सर्वोच्च है।
जीवन परिचय –
काशी के गोवर्धन सराय नामक मोहल्ले में सुधनी साहू के घर पर 1889 को जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ। प्रसाद जी के पिता एक धनी, प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार से सम्बन्धित थे। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। बालक प्रसाद का आरम्भिक जीवन बड़ा ही खुशहाली में बीता। आरम्भ में इनको व्यायाम करने का बड़ा ही शौक था। अच्छा भोजन करते थे और अच्छे वस्त्र पहनते थे। फलस्वरूप इनका शरीर अत्यन्त सुन्दर था।प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। जब बालक प्रसाद की आयु 12 वर्ष की थी, तब इन पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े। इनके पिता का देहान्त होते ही घर-परिवार की आर्थिक स्थिति गड़बड़ा गई। व्यापार में काफी घाटा हुआ और परिवार का सारा बोझ इनके बड़े भाई शम्भू रत्न पर आ पड़ा। अब बालक प्रसाद स्कूल छोड़कर घर पर रहने लगे। बड़े भाई ने घर पर ही इनकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी। लेकिन पिता की मृत्यु के तीन वर्ष बाद ही माता का भी देहान्त हो गया। दुर्भाग्य से माता की मृत्यु के दो वर्ष बाद उनके बड़े भाई शम्भू रत्न भी चल बसे। अब घर का सारा दायित्व प्रसाद जी पर था।
प्रसाद जी ने घर पर रहकर योग्य विद्वान अध्यापकों से हिन्दी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत भाषा में इनकी अत्यधिक रुचि थी। संस्कृत विद्वान् श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी ने प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य, वेद, पुराण, उपनिषद् स्मृति ग्रन्य आदि का गम्भीर अध्ययन कराया। लेकिन फिर भी प्रसाद जी को अपने जीवन में लम्बे संघर्षों का सामना करना पड़ा। बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् सम्पूर्ण परिवार ऋण के बोझ तले दबा पड़ा था। प्रसाद जी ने मेहनत करके अपना व्यापार चलाया और सन् 1930 के लगभग परिवार को ऋण के बोझ से मुक्त कर दिया। वैवाहिक जीवन में प्रसाद जी को दो बार पत्नी वियोग झेलना पड़ा। प्रसाद आनन्दवादी दर्शन को मानते थे। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। लेकिन 1937 में 48 वर्ष की आयु में राज-यक्ष्मा रोग के कारण इनकी मृत्यु हो गई।
रचनाएँ –
प्रसाद जी एक महान कवि थे। 48 वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की। उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।- काव्य: कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, झरना, आंसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक कहानी : संग्राम' (1923), कर्बला (1924), प्रेम की वेदी (1933)
- नाटक : स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, कामना, एक घूंट
- उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती
- कहानी संग्रह : छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी, इन्द्रजाल
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